Thursday 11 October 2018

निघट्टू - A LAZY MAN

बात भारत के एक छोटे से गांव गंगापुर की है, जहाँ रामदीन नाम का एक किसान रहता था। वह कभी-कभी पेट पालने के लिए मजदूरी कर लिया करता था, तो कभी जमींदार शेरसिंह के यहाँ मजदूरी कर लेता। शेरसिंह भी था बिल्कुल जालिम आदमी। अपने को पूरे गांव का अन्नदाता कहता और रामदीन जैसे छोटे किसानों को अपना गुलाम समझता। खैर जैसे तैसे करके रामदीन के परिवार का  गुजारा हो जाता।
                रामदीन की औरत पुतली भी अपने मर्द के साथ खेतों में काम करती। इसी तरह समय कटता रहा। बड़ी लड़की कमला ब्याहने लायक हुई, तो रामदीन ने खेत बेच कर ,तो कुछ कर्ज लेकर बेटी को बिदा कर दिया, पर रामदीन का लड़का ढेलु परम आलसी, ज्यादा पढ़ाई-लिखाई तो की नहीं, काम से भी कोसो दूर। दिन भर बाप खेतो में हल चलाता, तो बेटा घर में पड़े-पड़े खाट तोड़ता। जब माँ कहती बेटा बाप का हाथ बटा तो बोल देता, माँ बस कल ही काम खोज लूंगा। उसने तो जैसे मलूकदास को अपना आदर्श मान लिया था। घर में ज्यादा झगड़ा होने पर कह देता-
      अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काज
       सन्त मलूका कह गए, सबके दाता राम।
                      गाँव वाले भी ढेलू को निखट्टू ही कहते और जब ढेलू दिखता तो कहते - ढेलू लगता है, आज खाट घर पर ही भूल आये? पर ढेलू था कि कोई फर्क ही नहीं पड़ता। पान-गुटका खा कर फिर पुराने ढर्रे पर। रामदीन भी परेशान रहता, जमींदार से कह कर ढेलू को बेगारी पर लगा देता, पर आलसी के लिए आलस ही उनका धर्म होता है, आधा काम छोड़ भाग आता। जमींदार भी खूंखार राक्षस था, अपने गुर्गो से कह कर ढेलू पर कोड़े पड़वा देता। पर इधर ढेलू भी था अपनी धुन में मस्त। किसी बात या मार का कोई फर्क नहीं। समय बीतता गया, काम के बोझ ने रामदीन को टी बी का मरीज बना दिया, काम काज अब उसके बस का रहा नहीं। घर का सारा बोझ ढेलू पर आ गया। पर ढेलू भी तब परम निक्कमा, सबेरे जाता दोपहर तक वापस। अब घर में फांके मारने की नौबत आ गयी। लेकिन वो कहते हैं न कि किस्मत के खेल निराले होते हैं। अब भाग्य ने पलटा मारा, गाँव के प्रधानी की सीट हरिजन सीट घोषित हो गयी। अब जमींदार को लगा, बरसों की प्रधानी हाथो से गयी। किसी ने जमींदार को सलाह दी क्यों न किसी ऐसे हरिजन को चुनाव लड़ाया जाय, कि प्रधानी भी घर में रहे और सीट भी हरिजन। अब गाँव में तलाश शुरू हुई ऐसे आदमी की, जो जमींदार की चाकरी भी करे और प्रधान बन जमींदार की कठपुतली भी बना रहे। अंत में लोगों को निघटू  से ज्यादा अच्छा गुलाम कोई लगा नहीं, सो गुर्गो से बोलकर निघट्टू को बुलवा बेजा। आते ही जमींदार बोला-क्यों रे  चुनाव लड़ेगा, सौ रुपये महीना दूंगा, रोटी कपडा अलग से। ढेलू को लगा जैसे भाग्य खुल गए। वो बोला माई-बाप आप जो बोले, अब ठीक। जमींदार ने दो रोटी और गुड़ खिला कर कहा- तो ठीक है तेरी नौकरी पक्की। इधर रामदीन ने जब सुना, तो वो भी खुश, चलो लड़के के खाने-पीने का इंजेताम हो गया।
        तय समय पर चुनाव हुए, जमींदार साहब के कारण सबने ढेलू को वोट दिया और अपना ढेलू बन गया - गाँव का प्रधान और जमींदार उसका हाकिम। जमींदार जहाँ बोलता ढेलू वहीँ दस्तखत करता, सारा हिसाब किताब जमींदार साहब रखते। महीने के सौ रुपये ढेलू को भी मिल जाते। खाना-पीना अलग से। अब तो ढेलू के भी दोस्त हो गये थे। रमेश , जो कुछ ज्यादा पढ़ा-लिखा था उनको जमींदार की दादागिरी एक आंख न सुहाती। वो ढेलू को बताता की देख ढेलू तू गाँव का प्रधान है, आखिर तेरा भी तो कुछ हक है पैसो पर। परंतु ढेलू भी बोल देता - जमींदार साहब ही प्रधान हैं, मुझे तो बस सौ रुपये चाहिए। समय के साथ जमींदार साहब का लालच बढ़ा, ढेलू के सौ रुपए भी बंद। घर में फांके होने लगे तो रमेश से रहा नही गया। ढेलू को गाँव, माँ-बाप सब का वास्ता दिया तो ढेलू को भी लगा, आखिर मैं भी तो प्रधान हूँ, और गाँव के प्रधान ठाट से रहते है। सब के पास बुलेट है और मेरे पास टूटी चप्पल नहीं। अब ढेलू के तेवर बगावती हो रहे थे। एक दिन वो भी आ गया, जब जमींदार ने कहा- चल ढेलू, गाँव की सड़क बनवानी है, चेक पर अंगूठा लगा। तो ढेलू बोला- मालिक अबकी बार सड़क मैं बनवा दूं क्या? जमींदार की भौं तन गयी बोला तेरे बाप ने भी कभी सड़क बनवायी है जो तू बनवायेगा, चल अंगूठा लगा। अब बारी ढेलू की थी, ढेलू ने साफ़ मना कर दिया। ढेलू के बगावती तेवर देख जमींदार आग बबूला हो गया। गुर्गे से बोल कर ढेलू के पैर तुड़वा दिये। इधर किसी ने पुलिस को फ़ोन कर दिया। बात कप्तान साहब तक पहुँच गयी क्योंकि बात एक प्रधान को मारने की थी। गाँव में पुलिस आयी, पर जमींदार के बहुत हाथ पैर जोड़ने पर छोड़ दिया, पर कहलवा दिया की अबकी बार हवालात भेज दूंगा। अब जमींदार के काटो तो खून नहीं, प्रधानी गयी सो गयी गाँव में बेइज्जती अलग से।
               इधर ढेलू और रमेश खुद पैसा निकलते, गाँव में सड़क, नल, बिजली लगवाते। ढेलू को भी अब काम करने में मजा आता और गाँव वालों की वाह-वाही मिलती अलग से। साल भर में गाँव की किस्मत बदल गयी। अब गाँव में सड़क, बिजली, पानी, नाली सब थी। ढेलू ने भी बुलेट खरीद ली, मकान बनवा लिया। अब बुलेट पर बैठ कर गाँव में रौब से घूमता, लोगो की समस्या सुनता और हर मुमकिन मदद करता।
         सरकार ने गाँव के तेज विकास, गाँव की सुविधाएं देख कर ढेलू प्रधान को पुरस्कृत करने की घोषणा की। तय दिन, जिले के कलेक्टर साहब ने तमाम लोगों के सामने ढेलू को इनाम दिया। एक कोने में बैठे रामदीन की आँखों में आंसू आ गए, रह-रह कर कभी ताली बजाता तो कभी कहता- मैं जानता था कि मेरे निघट्टू, हीरा है हीरा।

लेखक- निशंक

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