Monday 15 October 2018

नियति का खेल । game of destiny



एक सच्ची कहानी..''भविष्य अग्यात है''
मृत्यु के देवता ने अपने एक दूत को पृथ्वी पर भेजा ।
एक स्त्री मर गयी थी, उसकी आत्मा को लाना था।
देवदूत आया, लेकिन चिंता में पड़ गया। क्योंकि तीन छोटी-छोटी लड़कियां जुड़वां–एक अभी भी उस मृत स्त्री के स्तन से लगी है। एक चीख रही है, पुकार रही है। एक रोते-रोते सो गयी है, उसके आंसू उसकी आंखों के पास सूख गए हैं ।तीन छोटी जुड़वां बच्चियां और स्त्री मर गयी है, और कोई देखने वाला नहीं है। पति पहले मर चुका है। परिवार में और कोई भी नहीं है। इन तीन छोटी बच्चियों का क्या होगा?
उस देवदूत को यह खयाल आ गया, तो वह खाली हाथ वापस लौट गया। उसने जा कर अपने प्रधान को कहा कि मैं न ला सका, मुझे क्षमा करें, लेकिन आपको स्थिति का पता ही नहीं है। तीन जुड़वां बच्चियां हैं–छोटी-छोटी, दूध पीती। एक अभी भी मृत स्तन से लगी है, एक रोते-रोते सो गयी है, दूसरी अभी चीख-पुकार रही है। हृदय मेरा ला न सका। क्या यह नहीं हो सकता कि इस स्त्री को कुछ दिन और जीवन के दे दिए जाएं? कम से कम लड़कियां थोड़ी बड़ी हो जाएं। और कोई देखने वाला नहीं है।
मृत्यु के देवता ने कहा, तो तू फिर समझदार हो गया; उससे ज्यादा, जिसकी मर्जी से मौत होती है, जिसकी मर्जी से जीवन होता है! तो तूने पहला पाप कर दिया, और इसकी तुझे सजा मिलेगी। और सजा यह है कि तुझे पृथ्वी पर चले जाना पड़ेगा। और जब तक तू तीन बार न हंस लेगा अपनी मूर्खता पर, तब तक वापस न आ सकेगा।इसे थोड़ा समझना। तीन बार न हंस लेगा अपनी मूर्खता पर–क्योंकि दूसरे की मूर्खता पर तो अहंकार हंसता है। जब तुम अपनी मूर्खता पर हंसते हो तब अहंकार टूटता है।
देवदूत को लगा नहीं। वह राजी हो गया दंड भोगने को, लेकिन फिर भी उसे लगा कि सही तो मैं ही हूं। और हंसने का मौका कैसे आएगा?
उसे जमीन पर फेंक दिया गया। एक मोची, सर्दियों के दिन करीब आ रहे थे और बच्चों के लिए कोट और कंबल खरीदने शहर गया था, कुछ रुपए इकट्ठे कर के।
जब वह शहर जा रहा था तो उसने राह के किनारे एक नंगे आदमी को पड़े हुए, ठिठुरते हुए देखा। यह नंगा आदमी वही देवदूत था, जो पृथ्वी पर फेंक दिया गया था। उस को दया आ गयी। और बजाय अपने बच्चों के लिए कपड़े खरीदने के, उसने इस आदमी के लिए कंबल और कपड़े खरीद लिए। इस आदमी को कुछ खाने-पीने को भी न था, घर भी न था, छप्पर भी न था जहां रुक सके। तो मोची ने कहा कि अब तुम मेरे साथ ही आ जाओ। लेकिन अगर मेरी पत्नी नाराज हो–जो कि वह निश्चित होगी, क्योंकि बच्चों के लिए कपड़े खरीदने लाया था, वह पैसे तो खर्च हो गए–वह अगर नाराज हो, चिल्लाए, तो तुम परेशान मत होना। थोड़े दिन में सब ठीक हो जाएगा।
उस देवदूत को ले कर मोची घर लौटा। न तो मोची को पता है कि देवदूत घर में आ रहा है, न पत्नी को पता है। जैसे ही देवदूत को ले कर मोची घर में पहुंचा, पत्नी एकदम पागल हो गयी। बहुत नाराज हुई, बहुत चीखी-चिल्लायी।और देवदूत पहली दफा हंसा। मोची ने उससे कहा, हंसते हो, बात क्या है? उसने कहा, मैं जब तीन बार हंस लूंगा तब बता दूंगा।
देवदूत हंसा पहली बार, क्योंकि उसने देखा कि इस पत्नी को पता ही नहीं है कि मोची देवदूत को घर में ले आया है, जिसके आते ही घर में हजारों खुशियां आ जाएंगी। लेकिन आदमी देख ही कितनी दूर तक सकता है! पत्नी तो इतना ही देख पा रही है कि एक कंबल और बच्चों के कपड़े नहीं बचे। जो खो गया है वह देख पा रही है, जो मिला है उसका उसे अंदाज ही नहीं है–मुफ्त! घर में देवदूत आ गया है। जिसके आते ही हजारों खुशियों के द्वार खुल जाएंगे। तो देवदूत हंसा। उसे लगा, अपनी मूर्खता–क्योंकि यह पत्नी भी नहीं देख पा रही है कि क्या घट रहा है!
जल्दी ही, क्योंकि वह देवदूत था, सात दिन में ही उसने मोची का सब काम सीख लिया। और उसके जूते इतने प्रसिद्ध हो गए कि मोची महीनों के भीतर धनी होने लगा। आधा साल होते-होते तो उसकी ख्याति सारे लोक में पहुंच गयी कि उस जैसा जूते बनाने वाला कोई भी नहीं, क्योंकि वह जूते देवदूत बनाता था। सम्राटों के जूते वहां बनने लगे। धन अपरंपार बरसने लगा।
एक दिन सम्राट का आदमी आया। और उसने कहा कि यह चमड़ा बहुत कीमती है, आसानी से मिलता नहीं, कोई भूल-चूक नहीं करना। जूते ठीक इस तरह के बनने हैं। और ध्यान रखना जूते बनाने हैं, स्लीपर नहीं। क्योंकि रूस में जब कोई आदमी मर जाता है तब उसको स्लीपर पहना कर मरघट तक ले जाते हैं। मोची ने भी देवदूत को कहा कि स्लीपर मत बना देना। जूते बनाने हैं, स्पष्ट आज्ञा है, और चमड़ा इतना ही है। अगर गड़बड़ हो गयी तो हम मुसीबत में फंसेंगे।
लेकिन फिर भी देवदूत ने स्लीपर ही बनाए। जब मोची ने देखे कि स्लीपर बने हैं तो वह क्रोध से आगबबूला हो गया। वह लकड़ी उठा कर उसको मारने को तैयार हो गया कि तू हमारी फांसी लगवा देगा! और तुझे बार-बार कहा था कि स्लीपर बनाने ही नहीं हैं, फिर स्लीपर किसलिए?
देवदूत फिर खिलखिला कर हंसा। तभी आदमी सम्राट के घर से भागा हुआ आया। उसने कहा, जूते मत बनाना, स्लीपर बनाना। क्योंकि सम्राट की मृत्यु हो गयी है।
भविष्य अज्ञात है। सिवाय उसके और किसी को ज्ञात नहीं। और आदमी तो अतीत के आधार पर निर्णय लेता है। सम्राट जिंदा था तो जूते चाहिए थे, मर गया तो स्लीपर चाहिए। तब वह मोची उसके पैर पकड़ कर माफी मांगने लगा कि मुझे माफ कर दे, मैंने तुझे मारा। पर उसने कहा, कोई हर्ज नहीं। मैं अपना दंड भोग रहा हूं,लेकिन वह हंसा आज दुबारा। मोची ने फिर पूछा कि हंसी का कारण? उसने कहा कि जब मैं तीन बार हंस लूं…।दुबारा हंसा इसलिए कि भविष्य हमें ज्ञात नहीं है। इसलिए हम आकांक्षाएं करते हैं जो कि व्यर्थ हैं। हम अभीलाषा करते हैं जो कि कभी पूरी न होंगी। हम मांगते हैं जो कभी नहीं घटेगा। क्योंकि कुछ और ही घटना तय है। हमसे बिना पूछे हमारी नियति घूम रही है। और हम व्यर्थ ही बीच में शोरगुल मचाते हैं। चाहिए स्लीपर और हम जूते बनवाते हैं। मरने का वक्त करीब आ रहा है और जिंदगी का हम आयोजन करते हैं।
तो देवदूत को लगा कि वे बच्चियां! मुझे क्या पता, भविष्य उनका क्या होने वाला है? मैं नाहक बीच में आया।
और तीसरी घटना घटी कि एक दिन तीन लड़कियां आयीं जवान। उन तीनों की शादी हो रही थी। और उन तीनों ने जूतों के आर्डर दिए कि उनके लिए जूते बनाए जाएं। एक बूढ़ी महिला उनके साथ आयी थी जो बड़ी धनी थी। देवदूत पहचान गया, ये वे ही तीन लड़कियां हैं, जिनको वह मृत मां के पास छोड़ गया था और जिनकी वजह से वह दंड भोग रहा है। वे सब स्वस्थ हैं, सुंदर हैं।
उसने पूछा कि क्या हुआ? यह बूढ़ी औरत कौन है?
उस बूढ़ी औरत ने कहा कि ये मेरी पड़ोसिन की लड़कियां हैं। गरीब औरत थी, उसके शरीर में दूध भी न था। उसके पास पैसे-लत्ते भी नहीं थे। और तीन बच्चे जुड़वां। वह इन्हीं को दूध पिलाते-पिलाते मर गयी। लेकिन मुझे दया आ गयी, मेरे कोई बच्चे नहीं हैं, और मैंने इन तीनों बच्चियों को पाल लिया।अगर मां जिंदा रहती तो ये तीनों बच्चियां गरीबी, भूख और दीनता और दरिद्रता में बड़ी होतीं। मां मर गयी, इसलिए ये बच्चियां तीनों बहुत बड़े धन-वैभव में, संपदा में पलीं। और अब उस बूढ़ी की सारी संपदा की ये ही तीन मालिक हैं। और इनका सम्राट के परिवार में विवाह हो रहा है।
देवदूत तीसरी बार हंसा। और मोची को उसने कहा कि ये तीन कारण हैं। भूल मेरी थी। नियति बड़ी है। और हम उतना ही देखते हैं, जितना देख पाते हैं। जो नहीं देख पाते, बहुत विस्तार है उसका। और हम जो देख पाते हैं उससे हम कोई अंदाज नहीं लगा सकते, जो होने वाला है, जो होगा। मैं अपनी मूर्खता पर तीन बार हंस लिया हूं। अब मेरा दंड पूरा हो गया और अब मैं जाता हूं ।
जो प्रभु करते है अच्छे के  लिए करते है ।

संदर्भ- एक रूसी कहानी

Thursday 11 October 2018

निघट्टू - A LAZY MAN

बात भारत के एक छोटे से गांव गंगापुर की है, जहाँ रामदीन नाम का एक किसान रहता था। वह कभी-कभी पेट पालने के लिए मजदूरी कर लिया करता था, तो कभी जमींदार शेरसिंह के यहाँ मजदूरी कर लेता। शेरसिंह भी था बिल्कुल जालिम आदमी। अपने को पूरे गांव का अन्नदाता कहता और रामदीन जैसे छोटे किसानों को अपना गुलाम समझता। खैर जैसे तैसे करके रामदीन के परिवार का  गुजारा हो जाता।
                रामदीन की औरत पुतली भी अपने मर्द के साथ खेतों में काम करती। इसी तरह समय कटता रहा। बड़ी लड़की कमला ब्याहने लायक हुई, तो रामदीन ने खेत बेच कर ,तो कुछ कर्ज लेकर बेटी को बिदा कर दिया, पर रामदीन का लड़का ढेलु परम आलसी, ज्यादा पढ़ाई-लिखाई तो की नहीं, काम से भी कोसो दूर। दिन भर बाप खेतो में हल चलाता, तो बेटा घर में पड़े-पड़े खाट तोड़ता। जब माँ कहती बेटा बाप का हाथ बटा तो बोल देता, माँ बस कल ही काम खोज लूंगा। उसने तो जैसे मलूकदास को अपना आदर्श मान लिया था। घर में ज्यादा झगड़ा होने पर कह देता-
      अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काज
       सन्त मलूका कह गए, सबके दाता राम।
                      गाँव वाले भी ढेलू को निखट्टू ही कहते और जब ढेलू दिखता तो कहते - ढेलू लगता है, आज खाट घर पर ही भूल आये? पर ढेलू था कि कोई फर्क ही नहीं पड़ता। पान-गुटका खा कर फिर पुराने ढर्रे पर। रामदीन भी परेशान रहता, जमींदार से कह कर ढेलू को बेगारी पर लगा देता, पर आलसी के लिए आलस ही उनका धर्म होता है, आधा काम छोड़ भाग आता। जमींदार भी खूंखार राक्षस था, अपने गुर्गो से कह कर ढेलू पर कोड़े पड़वा देता। पर इधर ढेलू भी था अपनी धुन में मस्त। किसी बात या मार का कोई फर्क नहीं। समय बीतता गया, काम के बोझ ने रामदीन को टी बी का मरीज बना दिया, काम काज अब उसके बस का रहा नहीं। घर का सारा बोझ ढेलू पर आ गया। पर ढेलू भी तब परम निक्कमा, सबेरे जाता दोपहर तक वापस। अब घर में फांके मारने की नौबत आ गयी। लेकिन वो कहते हैं न कि किस्मत के खेल निराले होते हैं। अब भाग्य ने पलटा मारा, गाँव के प्रधानी की सीट हरिजन सीट घोषित हो गयी। अब जमींदार को लगा, बरसों की प्रधानी हाथो से गयी। किसी ने जमींदार को सलाह दी क्यों न किसी ऐसे हरिजन को चुनाव लड़ाया जाय, कि प्रधानी भी घर में रहे और सीट भी हरिजन। अब गाँव में तलाश शुरू हुई ऐसे आदमी की, जो जमींदार की चाकरी भी करे और प्रधान बन जमींदार की कठपुतली भी बना रहे। अंत में लोगों को निघटू  से ज्यादा अच्छा गुलाम कोई लगा नहीं, सो गुर्गो से बोलकर निघट्टू को बुलवा बेजा। आते ही जमींदार बोला-क्यों रे  चुनाव लड़ेगा, सौ रुपये महीना दूंगा, रोटी कपडा अलग से। ढेलू को लगा जैसे भाग्य खुल गए। वो बोला माई-बाप आप जो बोले, अब ठीक। जमींदार ने दो रोटी और गुड़ खिला कर कहा- तो ठीक है तेरी नौकरी पक्की। इधर रामदीन ने जब सुना, तो वो भी खुश, चलो लड़के के खाने-पीने का इंजेताम हो गया।
        तय समय पर चुनाव हुए, जमींदार साहब के कारण सबने ढेलू को वोट दिया और अपना ढेलू बन गया - गाँव का प्रधान और जमींदार उसका हाकिम। जमींदार जहाँ बोलता ढेलू वहीँ दस्तखत करता, सारा हिसाब किताब जमींदार साहब रखते। महीने के सौ रुपये ढेलू को भी मिल जाते। खाना-पीना अलग से। अब तो ढेलू के भी दोस्त हो गये थे। रमेश , जो कुछ ज्यादा पढ़ा-लिखा था उनको जमींदार की दादागिरी एक आंख न सुहाती। वो ढेलू को बताता की देख ढेलू तू गाँव का प्रधान है, आखिर तेरा भी तो कुछ हक है पैसो पर। परंतु ढेलू भी बोल देता - जमींदार साहब ही प्रधान हैं, मुझे तो बस सौ रुपये चाहिए। समय के साथ जमींदार साहब का लालच बढ़ा, ढेलू के सौ रुपए भी बंद। घर में फांके होने लगे तो रमेश से रहा नही गया। ढेलू को गाँव, माँ-बाप सब का वास्ता दिया तो ढेलू को भी लगा, आखिर मैं भी तो प्रधान हूँ, और गाँव के प्रधान ठाट से रहते है। सब के पास बुलेट है और मेरे पास टूटी चप्पल नहीं। अब ढेलू के तेवर बगावती हो रहे थे। एक दिन वो भी आ गया, जब जमींदार ने कहा- चल ढेलू, गाँव की सड़क बनवानी है, चेक पर अंगूठा लगा। तो ढेलू बोला- मालिक अबकी बार सड़क मैं बनवा दूं क्या? जमींदार की भौं तन गयी बोला तेरे बाप ने भी कभी सड़क बनवायी है जो तू बनवायेगा, चल अंगूठा लगा। अब बारी ढेलू की थी, ढेलू ने साफ़ मना कर दिया। ढेलू के बगावती तेवर देख जमींदार आग बबूला हो गया। गुर्गे से बोल कर ढेलू के पैर तुड़वा दिये। इधर किसी ने पुलिस को फ़ोन कर दिया। बात कप्तान साहब तक पहुँच गयी क्योंकि बात एक प्रधान को मारने की थी। गाँव में पुलिस आयी, पर जमींदार के बहुत हाथ पैर जोड़ने पर छोड़ दिया, पर कहलवा दिया की अबकी बार हवालात भेज दूंगा। अब जमींदार के काटो तो खून नहीं, प्रधानी गयी सो गयी गाँव में बेइज्जती अलग से।
               इधर ढेलू और रमेश खुद पैसा निकलते, गाँव में सड़क, नल, बिजली लगवाते। ढेलू को भी अब काम करने में मजा आता और गाँव वालों की वाह-वाही मिलती अलग से। साल भर में गाँव की किस्मत बदल गयी। अब गाँव में सड़क, बिजली, पानी, नाली सब थी। ढेलू ने भी बुलेट खरीद ली, मकान बनवा लिया। अब बुलेट पर बैठ कर गाँव में रौब से घूमता, लोगो की समस्या सुनता और हर मुमकिन मदद करता।
         सरकार ने गाँव के तेज विकास, गाँव की सुविधाएं देख कर ढेलू प्रधान को पुरस्कृत करने की घोषणा की। तय दिन, जिले के कलेक्टर साहब ने तमाम लोगों के सामने ढेलू को इनाम दिया। एक कोने में बैठे रामदीन की आँखों में आंसू आ गए, रह-रह कर कभी ताली बजाता तो कभी कहता- मैं जानता था कि मेरे निघट्टू, हीरा है हीरा।

लेखक- निशंक

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Wednesday 10 October 2018

पश्चाताप | repentance

आज फिर ऑफिस में देर हो गयी, बॉस जाते ही कहेगा, बड़ी जल्दी आ गए, शाम तक आते तो उपकार हो जाता। दिमाग में बहुत से विचार आते जा रहे थे। तभी पहियों की चरचराहट ने विशाल का ध्यान तोड़ दिया। लोग दौड़ रहे थे, विशाल भी गया, तो देखा बिजली विभाग का वही बाबू, जिसने बिजली के बिल के लिए विशाल को चार दिन दौड़ाया था, आज बस के आगे पड़ा था, सिर में काफी चोट आई थी। लोग कह रहे थे, बहुत चोट आई है, पर कोई उठा नहीं रहा था। विशाल हरकत में आया। तुरंत उसको उठा कर सिर में रुमाल बाँधी और एम्बुलेंस को बुला कर ट्रामा सेंटर ले गया। अब उस बाबु के सर का ऑपरेशन होना तो हो अस्पताल वालों ने पैसे की मांग। किसी तरह तुरंत विशाल ने पैसे का इन्तजाम किया। साथ ही आपरेशन के लिये खून भी दिया।। चार घंटे बाद उस बाबु को होश आया। तब तक उस बाबु के घरवाले भी आ गए थे। डॉक्टर्स ने उस बाबू को बताया कि किस तरह विशाल ने उनकी जान बचायी है, इधर वो बाबु भी विशाल को देखते ही पहचान गया, की ये वही है जिसको उसने चार दिन फालतू में दौड़ाया था और यह सोचते ही उसकी आँखों में पश्चाताप के आंसू थे, जो शायद विशाल से माफ़ी मांग रहे थे।

लेखक- निशंक

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तीर्थ-यात्रा। teerth yatra

 बनारस कहने को तो बाबा विश्वनाथ और घाटों की नगरी है, घाटों से ज्यादा मंदिर और पंडे हैं, इन्ही मंदिरों में एक था, स्वामी हरदेव का मंदिर और मंदिर में पुजारी थे,शंकर जी त्रिवेदी।

पंडित जी थे तो जाति के ब्राह्मण, पर ज्ञान एक भी वेद का नहीं था, पंडिताई विरासत में मिली थी और पंडित जी की तोंद, शायद हिमालय की चोटी हो रही थी ।चाय के लिए शायद मेज की जरूरत नहीं थी, उसके लिए तो शायद उनका पेट ही काफी था। चलते थे तो लगता था छोटा हाथी आ रहा है। खैर उनका पेट आकर्षण का केंद्र तो था ही शायद आकर्षण का भी। बच्चे उनको तोन्दुमल कह कर  चिढ़ाते। पंडित जी मैं एक खासियत और थी, शायद उन्होंने कंजूसी में m.a. कर रखा था। ब्रह्मा चमड़ी और दमड़ी में एक को चुनने को कहते तो वह हमेशा दमड़ी ही चुनते। एक धोती में दो-तीन साल आराम से काट देते। कहीं से धोती दान में मिलती तो फूल कर कुप्पा हो जाते
      खैर समय बीतता गया। मां बाप स्वर्ग सिधार गए तो पंडिताइन ने कहा कि आपकी 7 पुश्तो में कोई भी गया जी में पिंड दान  को नहीं गया, आपको जाना चाहिए।बड़ी मनौती के बाद पंडित जी तैयार हुए। पंडिताइन ने चना और थोड़ा गुड बांध दिया क्योंकि सफर लंबा था, तो थोड़े पैसे रख लिए। पैरों में वही 15 साल पुराने जूते पहने और निकल पड़े सफर के लिए। गांव से निकलते ही जूते डंडे में टांग लिए कि कहीं घिस ना जाएं। रास्ते में धर्मशाला में रुकते और मुफ्त का भोजन मिलता तो डट कर खा लेते है, लोग भी पंडित को भोजन करा कर अपने को धन्य समझते, दान देते अलग से। खैर किसी तरह गिरते-पड़ते सफर कटता रहा और पंडित जी पहुंच गए गया जी के एक गांव शरीफपुर में। कहने को गांव का नाम तो शरीफपुर, परंतु शायद गाँव वालों में शराफत का एक अंश न था। गांव के बच्चे तो बच्चे, मर्द सब निरा उज्जड। पंडित जी ने रात  किसी तरह पेड़ के नीचे काटी। भोर होते ही तालाब में नहाने चल दिये। अभी कुछ दूर चले ही थे कि गांव के कुत्तों ने अजनबी देख भौंकना शुरू कर दिया। पंडित जी के तो होश फाख्ता। अपनी धोती पकड़कर किसी तरह भागना शुरू कर दिया। अंधेरा था, कुछ दिख नहीं रहा था। साथ ही पंडित जी का पेट दौड़ने नहीं  दे रहा था। एकाएक पंडित जी का पैर फिसला और कटे पेड़ की तरह नाले में गिरे, छपाक से। लगा जैसे बरगद का पेड़ गिरा हो। पंडित जी कभी संभल कर उठते तो कभी गिर पड़ते।सारा शरीर कीचड़ से सन गया । खैर किसी तरह पंडित जी बाहर निकले और फिर चल दिए तालाब की ओर। रह-रहकर पंडित जी को अपना बनारस का घाट याद आ रहा था। सोचने में मगन, आज बनारस में होता, तो गंगा मां मैं सौ-सौ डुबकी लगाता। तभी उनको औरतों के चिल्लाने की आवाज सुनाई दी, ध्यान देकर सुना तो औरतें चिल्ला रही थी कि मलिच्छ बाबा लौट आये, मलिच्छ बाबा लौट आये। औरतें आ-आकर कर पंडित जी के पैरों में गिर पड़ी और कहने लगी बाबा आज वर्षों बाद आए हैं, आपको गांव में तो चलना पड़ेगा। उनमें से एक बूढ़ी औरत बोली, बाबा बहुत ज्ञानी हैं, हठयोगी हैं, केवल कीचड़ में नहाते हैं ,चूना खाते हैं।सब सुनते ही पंडित जी के काटो तो खून नहीं। भागने का बहुत प्रयास किया, पर सब बेकार। तब तक गांव की पूरी भीड़ उमड़ पड़ी। पंडित जी को कोई सुनने को तैयार  नहीं। अब पंडित जी का  आसन गांव के बीचों बीच लगाया गया। कुछ ने कहा -अब बाबा के नहाने का समय हो गया है।पंडित जी को कीचड़ स्नान कराकर सब पुण्य कमाएंगे। गांव के 10 12 लोग गए और बीसों बाल्टी कीचड़ ले आए और शुरू हुआ कीचड़ स्नान। बूढ़े-बच्चे और औरतें, सब लगे लोटे से स्नान कराने। ज्यादा भक्त लोग तो पूरी बाल्टी ही उड़ेल देते। पंडित जी का तो हाल बुरा हो रहा था चारों और कीचड़ और बदबू। एक घंटा स्नान के बाद भोग की बात आई, पनवाड़ी  यहां से एक हांडी चूना आया। पंडित जी के पूरे शरीर में चूना पोता गया। पुरोहित बाबा ने पंडित जी को चूना खिलाया। अब पंडित जी लगे चिल्लाने, पंडित जी जितना चिल्लाते, भक्तगण उतना खुश होते और कहते बाबा जब खुश होते हैं, तो ऐसे ही चिल्लाते हैं। बारी थी पंडित जी को चढ़ावे की। कोई आता और केले चढ़ाता तो कोई रुपए। साथ में एक प्रश्न- बाबा मेरी बेटी की शादी कब होगी, कोई कहता बाबा व्यापार में हानि हो रही। बेचारे पंडित जी करते क्या न करते, सबको कुछ ना कुछ बताते। यही करते शाम हुई, तो चढ़ावे के फल गांव में प्रसाद  के रूप में बट गए। इधर पंडित जी का भूख से बुरा हाल। जैसे-तैसे रात कटी। एक मन भागने को करता तो एक और धन का लालच रोक देता। सोचा 2 दिन रुक कर धन लेकर चंपत हो जाऊंगा। यही सब विचारते नींद खुली। आज कल से भी ज्यादा भीड़ थी। बगल के गांव के लोग जमा थे, कीचड़ की बाल्टियां भरी रखी थी। जैसे पंडित जी जागे हल्ला हुआ बाबा जाग गए, अब स्नान करेंगे। फिर शुरू हुआ कीचड़ स्नान आज तो 4 घंटे स्नान चला। गांव में तो मेला सा लगा था दुकानें सजा ली कीचड़ और चूना बेचना शुरू कर दिया। कुछ बुद्धजीवियों ने बाबा के दर्शन के लिए भक्तजनों से पैसे ऐंठने शुरू कर दिया बाबा भूख से बेहाल। चारो ओर फलों का भंडार था किंतु सब बेकार। शाम को प्रसाद बांटने के बाद पंडित जी ने चलने का आग्रह किया तो लोगों ने पैर पकड़ लिए। जब पंडित जी नहीं माने तो गांव वालों ने चार लठैत लगा दिए कि पंडित कहीं न जाएं। अब पंडित जी मरते क्या ना करते। डर से गांव वालों की बात माननी पड़ी। सोचा कुछ दिन भूखे रहकर धन कमा लूं। सातवें दिन पंचायत में निर्णय हुआ, बाबा तो सिद्ध पुरुष है, धन का मोह तो है नहीं। क्यों ना बाबा के नाम का मंदिर बना दिया जाए। सो अब चढ़ावे का सारा पैसा मंदिर के लिए दे दिया गया। अब पंडित जी की स्थिति माया मिली न राम सी हो गयी। 7 दिनों से भूखे पंडित जी को रात भर नींद ना आई। प्रातः 4:00 बजे जब देखा, गांव सो रहा है, लठैत लोग भी नदारद थे, पंडित जी लगे भागने। भागते-भागते 4 गांव पार कर गए, तब मुड़ कर देखा की कहीं कोई पीछा तो नहीं कर रहा, किसी को पीछे आता ना देख कर चैन की ली और अब पंडित जी ने गया जी जाने से सदैव के लिए तौबा कर लिया और अब उनको समझ आया कि उनकी सात पुश्तों में कभी कोई गया जी क्यों नहीं गया था।


 लेखक :- निशंक
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नियति का खेल । game of destiny

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